Cumulative Causation Model |क्षेत्रीय योजना में संचयी कारण मॉडल (Cumulative Causation Model)

Cumulative Causation Model परिचय

Cumulative Causation Model संचयी कारण मॉडल (Cumulative Causation Model) एक आर्थिक सिद्धांत है जिसे स्वीडिश अर्थशास्त्री गुन्नार मिर्डल ने प्रस्तुत किया था। इस मॉडल का मुख्य उद्देश्य यह समझना है कि किस प्रकार से आर्थिक और सामाजिक प्रक्रियाएं एक क्षेत्र में विकास और पिछड़ेपन को संचालित करती हैं। क्षेत्रीय योजना में, यह मॉडल बताता है कि किस प्रकार से विभिन्न आर्थिक गतिविधियाँ एक दूसरे पर प्रभाव डालती हैं और कैसे यह प्रभाव समय के साथ संचयी (cumulative) होता है।

Cumulative Causation Model संचयी कारण मॉडल की अवधारणा

Cumulative Causation Model संचयी कारण मॉडल इस सिद्धांत पर आधारित है कि आर्थिक विकास एक स्व-स्थायी प्रक्रिया है। इसका मतलब यह है कि एक बार जब कोई क्षेत्र आर्थिक विकास की राह पर चल पड़ता है, तो वहां के विकास की गति बढ़ती जाती है और यह विकास अन्य क्षेत्रों पर भी सकारात्मक प्रभाव डालता है। इस प्रक्रिया को समझने के लिए, हमें कुछ मुख्य बिंदुओं पर ध्यान देना होगा:

  1. प्राथमिक कारण (Primary Causes): यह वे प्रारंभिक आर्थिक गतिविधियाँ हैं जो किसी क्षेत्र में विकास की प्रक्रिया शुरू करती हैं, जैसे कि नई फैक्ट्रियों की स्थापना, बुनियादी ढांचे का विकास आदि।
  2. सहायक कारण (Supporting Causes): यह वे अतिरिक्त गतिविधियाँ हैं जो प्राथमिक कारणों को सहायता प्रदान करती हैं, जैसे कि बेहतर परिवहन सुविधाएँ, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं का सुधार, आदि।
  3. सकारात्मक प्रतिक्रियाएँ (Positive Feedbacks): यह वह प्रक्रिया है जिसमें एक क्षेत्र का विकास अन्य क्षेत्रों में भी विकास को प्रेरित करता है। उदाहरण के लिए, यदि किसी क्षेत्र में रोजगार के अवसर बढ़ते हैं, तो यह अन्य क्षेत्रों से मजदूरों को आकर्षित करेगा, जिससे वहां की आर्थिक गतिविधियाँ और बढ़ेंगी।

Cumulative Causation Model संचयी कारण मॉडल का प्रभाव

  1. आर्थिक विकास और असमानता: संचयी कारण मॉडल यह बताता है कि किस प्रकार से आर्थिक विकास की प्रक्रिया असमानता को जन्म देती है। जब कोई क्षेत्र विकास की राह पर होता है, तो वहां के संसाधन और अवसर बढ़ते हैं, जिससे अन्य पिछड़े क्षेत्रों की तुलना में उस क्षेत्र में अधिक आर्थिक गतिविधियाँ होती हैं। इससे क्षेत्रीय असमानता बढ़ती है।
  2. विपरीत प्रभाव (Backwash Effects): संचयी कारण मॉडल का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि विकासशील क्षेत्रों की सफलता अन्य पिछड़े क्षेत्रों पर विपरीत प्रभाव डाल सकती है। उदाहरण के लिए, अगर किसी क्षेत्र में अधिक रोजगार के अवसर होते हैं, तो अन्य क्षेत्रों से लोग वहां पलायन करने लगते हैं, जिससे उन पिछड़े क्षेत्रों की स्थिति और भी खराब हो जाती है।
  3. संतुलित विकास की आवश्यकता: संचयी कारण मॉडल यह भी इंगित करता है कि क्षेत्रीय योजना में संतुलित विकास की आवश्यकता है। यदि सभी क्षेत्रों में समान रूप से विकास नहीं होता है, तो यह असमानता और सामाजिक तनाव को जन्म दे सकता है। इसलिए, योजना निर्माताओं को इस मॉडल के सिद्धांतों को ध्यान में रखकर संतुलित विकास की रणनीतियाँ बनानी चाहिए।

निष्कर्ष

संचयी कारण मॉडल क्षेत्रीय योजना में एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है जो आर्थिक और सामाजिक विकास की प्रक्रियाओं को समझने में मदद करता है। यह मॉडल बताता है कि किस प्रकार से एक क्षेत्र का विकास अन्य क्षेत्रों को प्रभावित करता है और कैसे यह प्रक्रिया समय के साथ संचयी हो जाती है। इसके माध्यम से, योजना निर्माताओं को यह समझने में मदद मिलती है कि विकास को संतुलित और समग्र तरीके से कैसे आगे बढ़ाया जाए, ताकि क्षेत्रीय असमानता को कम किया जा सके और समग्र आर्थिक विकास को बढ़ावा दिया जा सके।


इस ब्लॉग पोस्ट के माध्यम से, संचयी कारण मॉडल की विस्तृत जानकारी और इसके क्षेत्रीय योजना में उपयोगिता को समझने का प्रयास किया गया है। उम्मीद है कि यह जानकारी आपके लिए उपयोगी साबित होगी।

Himalayan Drainage System

Himalayan Drainage System: हिमालय की अपवाह प्रणाली

Himalayan Drainage System | हिमालय की अपवाह प्रणाली: हिमालय की अपवाह प्रणाली: एक विस्तृत अवलोकन

Himalayan Drainage System | हिमालय की अपवाह प्रणाली: भारतीय उपमहाद्वीप विशाल और जटिल जल निकासी प्रणाली से धन्य है जो देश के भूगोल, अर्थव्यवस्था और संस्कृति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। हिमालय से निकलने वाली नदियाँ इस प्रणाली का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, जो कृषि, पेयजल और जलविद्युत शक्ति के माध्यम से लाखों जीवन को समर्थन देती हैं। इस ब्लॉग पोस्ट में हम हिमालय की जल निकासी प्रणाली की प्रमुख नदियों, उनके उद्गम स्थलों, जिन राज्यों से वे बहती हैं, उनकी लंबाई और दिशा के बारे में विस्तार से जानेंगे।

Himalayan Drainage System | हिमालय की अपवाह प्रणाली: प्रमुख हिमालयी नदियाँ

हिमालय की नदियों को मुख्य रूप से तीन नदी प्रणालियों में वर्गीकृत किया जा सकता है: सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र। इनमें से प्रत्येक नदी प्रणाली में कई महत्वपूर्ण सहायक नदियाँ शामिल हैं जो उनकी धारा में योगदान देती हैं।

Himalayan Drainage System | हिमालय की अपवाह प्रणाली: 1. सिंधु नदी प्रणाली

सिंधु नदी

  • उद्गम: तिब्बत के मानसरोवर झील के पास
  • राज्य: जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, पंजाब (पाकिस्तान), सिंध (पाकिस्तान)
  • लंबाई: लगभग 3,180 किमी
  • दिशा: जम्मू और कश्मीर से उत्तर-पश्चिम दिशा में पाकिस्तान में प्रवेश करती है

Himalayan Drainage System | हिमालय की अपवाह प्रणाली: मुख्य सहायक नदियाँ:

  • झेलम: जम्मू और कश्मीर के वेरिनाग स्रोत से निकलती है।
  • चिनाब: हिमाचल प्रदेश में चंद्र और भागा नदियों के संगम से बनती है।
  • रावी: हिमाचल प्रदेश के रोहतांग दर्रे के पास से निकलती है।
  • ब्यास: हिमाचल प्रदेश के रोहतांग दर्रे के पास ब्यास कुंड से निकलती है।
  • सतलुज: तिब्बत के राक्षसताल झील से निकलती है, हिमाचल प्रदेश और पंजाब से बहती है।

Himalayan Drainage System | हिमालय की अपवाह प्रणाली: 2. गंगा नदी प्रणाली

Himalayan Drainage System | हिमालय की अपवाह प्रणाली: गंगा नदी

  • उद्गम: उत्तराखंड के गंगोत्री ग्लेशियर से
  • राज्य: उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल
  • लंबाई: लगभग 2,525 किमी
  • दिशा: हिमालय से दक्षिण-पूर्व दिशा में बंगाल की खाड़ी तक

Himalayan Drainage System | हिमालय की अपवाह प्रणाली: मुख्य सहायक नदियाँ:

  • यमुना: उत्तराखंड के यमुनोत्री ग्लेशियर से निकलती है, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और उत्तर प्रदेश से बहती है।
  • घाघरा: तिब्बत के गुरला मंधाता चोटी के पास से निकलती है, नेपाल, उत्तर प्रदेश और बिहार से बहती है।
  • गंडक: नेपाल हिमालय से निकलती है, नेपाल, उत्तर प्रदेश और बिहार से बहती है।
  • कोसी: तिब्बती पठार से निकलती है और नेपाल और बिहार से बहती है।
  • सोन: मध्य प्रदेश के अमरकंटक के पास से निकलती है, उत्तर प्रदेश, झारखंड और बिहार से बहती है।

Himalayan Drainage System | हिमालय की अपवाह प्रणाली: 3. ब्रह्मपुत्र नदी प्रणाली

Himalayan Drainage System | हिमालय की अपवाह प्रणाली: ब्रह्मपुत्र नदी

  • उद्गम: तिब्बत के चेमायुंगडुंग ग्लेशियर से
  • राज्य: अरुणाचल प्रदेश, असम
  • लंबाई: लगभग 2,900 किमी
  • दिशा: तिब्बत में पूर्व दिशा में, अरुणाचल प्रदेश में दक्षिण में मुड़कर, फिर पश्चिम और दक्षिण में असम के माध्यम से बहती है

Himalayan Drainage System | हिमालय की अपवाह प्रणाली: मुख्य सहायक नदियाँ:

  • सुबनसिरी: तिब्बत से निकलती है और अरुणाचल प्रदेश और असम से बहती है।
  • मानस: भूटान से निकलती है और असम से बहती है।
  • तीस्ता: सिक्किम के त्सो ल्हामो झील से निकलती है, पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश से बहती है।
  • धनसिरी: नागालैंड से निकलती है और असम से बहती है।
  • दिबांग: अरुणाचल प्रदेश से निकलती है और असम में ब्रह्मपुत्र से मिलती है।
  • लोहित: तिब्बत से निकलती है, अरुणाचल प्रदेश से बहती है और असम में ब्रह्मपुत्र से मिलती है।

Himalayan Drainage System | हिमालय की अपवाह प्रणाली: हिमालयी नदियों की विशेषताएँ

  1. सदैव प्रवाहमान: हिमालयी नदियाँ सदैव प्रवाहमान रहती हैं, इन्हें वर्षा और ग्लेशियरों से पिघलने वाली बर्फ से पोषण मिलता है, जिससे साल भर निरंतर प्रवाह बना रहता है।
  2. विशाल जलग्रहण क्षेत्र: इन नदियों का विशाल जलग्रहण क्षेत्र है जो कई राज्यों और यहाँ तक कि देशों में फैला हुआ है।
  3. उच्च अवसाद भार: हिमालय के युवा वलित पर्वतों के कारण, ये नदियाँ उच्च अवसाद भार ले जाती हैं, जो नीचे की ओर उपजाऊ मैदानों में योगदान देता है।
  4. जलविद्युत क्षमता: इन नदियों के ऊपरी हिस्सों में खड़ी ढलानें इन्हें जलविद्युत उत्पादन के लिए आदर्श बनाती हैं।
  5. बाढ़: मानसून के मौसम में, ये नदियाँ अक्सर मैदानी इलाकों में बाढ़ का कारण बनती हैं, जिससे कृषि और बस्तियों पर प्रभाव पड़ता है।

Himalayan Drainage System | हिमालय की अपवाह प्रणाली: निष्कर्ष

Himalayan Drainage System | हिमालय की अपवाह प्रणाली: हिमालयी नदी प्रणालियाँ भारतीय उपमहाद्वीप की जीवनरेखाएँ हैं, जो भूगोल को आकार देने और लाखों लोगों की आजीविका का समर्थन करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इन नदी प्रणालियों को समझना प्रभावी जल संसाधन प्रबंधन, आपदा तैयारी और सतत विकास के लिए आवश्यक है। जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन हिमालयी ग्लेशियरों को प्रभावित करता है, इन महत्वपूर्ण जल स्रोतों की निगरानी और प्रबंधन भविष्य की पीढ़ियों के लिए और भी महत्वपूर्ण हो जाता है।

UGC NET 2024 Cancelled: UGC NET परीक्षा रद्द क्यों हुई: जानिए पूरा मामला

UGC NET 2024 Cancelled: हाल ही में UGC NET परीक्षा के दूसरे दिन, इसे अचानक रद्द कर दिया गया। यह फैसला कई छात्रों के लिए आश्चर्यजनक और चिंता का विषय बना हुआ है। यहाँ हम इस फैसले के पीछे के कारणों और इसके नतीजों पर एक नजर डालते हैं।

UGC NET 2024 Cancelled: UGC NET परीक्षा क्या है?

UGC NET 2024 Cancelled: UGC NET, यानी विश्वविद्यालय अनुदान आयोग राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा, एक प्रमुख परीक्षा है जो भारत में प्रोफेसर और जूनियर रिसर्च फेलोशिप (JRF) के लिए उम्मीदवारों की पात्रता निर्धारित करती है। यह परीक्षा राष्ट्रीय परीक्षण एजेंसी (NTA) द्वारा आयोजित की जाती है।

UGC NET 2024 Cancelled: परीक्षा क्यों रद्द की गई?

UGC NET 2024 Cancelled: रिपोर्ट्स के अनुसार, कुछ परीक्षा केंद्रों पर तकनीकी दिक्कतों और पेपर लीक जैसी गंभीर समस्याओं के चलते परीक्षा को रद्द करना पड़ा। छात्रों ने सोशल मीडिया पर इस संबंध में शिकायतें की थीं, जिससे परीक्षा की पारदर्शिता और निष्पक्षता पर सवाल उठे।

UGC NET 2024 Cancelled: NTA का क्या कहना है?

UGC NET 2024 Cancelled: NTA ने बयान जारी कर कहा कि वे परीक्षा के दौरान उत्पन्न हुई तकनीकी दिक्कतों और अन्य समस्याओं की जांच कर रहे हैं। उन्होंने यह भी कहा कि परीक्षा की नई तारीखें जल्द ही घोषित की जाएंगी और छात्रों को उचित समय पर सूचित किया जाएगा।

UGC NET 2024 Cancelled: छात्रों की प्रतिक्रिया

UGC NET 2024 Cancelled: छात्र इस स्थिति से काफी निराश और परेशान हैं। कई छात्रों ने अपनी तैयारियों और मेहनत को देखते हुए इस फैसले को अनुचित बताया है। उनके अनुसार, परीक्षा के रद्द होने से उनके भविष्य पर असर पड़ सकता है।

UGC NET 2024 Cancelled: आगे का रास्ता

UGC NET 2024 Cancelled: NTA ने छात्रों को आश्वासन दिया है कि वे जल्द ही नई तारीखों की घोषणा करेंगे और सुनिश्चित करेंगे कि अगली परीक्षा पूरी तरह से पारदर्शी और निष्पक्ष हो। छात्रों को सलाह दी गई है कि वे अपनी तैयारी जारी रखें और आधिकारिक घोषणाओं का इंतजार करें।

इस प्रकार, UGC NET परीक्षा के रद्द होने के पीछे तकनीकी समस्याएं और पेपर लीक जैसी गंभीर चिंताएं हैं। छात्रों को उम्मीद है कि NTA जल्द ही इस समस्या का समाधान निकालकर एक नई और पारदर्शी परीक्षा का आयोजन करेगा।

Global Energy Crisis

Global Energy Crisis | वैश्विक ऊर्जा संकट : कारण, परिणाम और समाधान

Global Energy Crisis | वैश्विक ऊर्जा संकट : परिचय

Global Energy Crisis | वैश्विक ऊर्जा संकट : वैश्विक ऊर्जा संकट एक गंभीर मुद्दा है जो दुनिया भर के देशों और समुदायों को प्रभावित करता है। जनसंख्या वृद्धि, औद्योगिकीकरण और तकनीकी प्रगति के कारण ऊर्जा की मांग लगातार बढ़ रही है, जिससे इस मांग को स्थायी रूप से पूरा करने की चुनौती और अधिक जटिल हो गई है। यह ब्लॉग पोस्ट वैश्विक ऊर्जा संकट के कारणों, परिणामों और संभावित समाधानों पर विस्तृत चर्चा करती है।

Global Energy Crisis | वैश्विक ऊर्जा संकट :वैश्विक ऊर्जा संकट के कारण

  1. ऊर्जा की बढ़ती मांग: 2050 तक दुनिया की जनसंख्या 9.7 अरब तक पहुंचने की उम्मीद है, जिससे ऊर्जा की खपत में वृद्धि होगी। इसके अलावा, उभरती अर्थव्यवस्थाओं में आर्थिक विकास ऊर्जा उपयोग को बढ़ा रहा है।
  2. सीमित जीवाश्म ईंधन भंडार: कोयला, तेल और प्राकृतिक गैस सहित जीवाश्म ईंधन वर्तमान में दुनिया की अधिकांश ऊर्जा की आपूर्ति करते हैं। हालांकि, ये संसाधन सीमित और घटते जा रहे हैं, जिससे दीर्घकालिक ऊर्जा सुरक्षा को लेकर चिंताएं बढ़ रही हैं।
  3. भूराजनीतिक तनाव: ऊर्जा आपूर्ति श्रृंखलाएं भूराजनीतिक संघर्षों के प्रति संवेदनशील हैं। प्रमुख तेल उत्पादक क्षेत्रों में राजनीतिक अस्थिरता आपूर्ति को बाधित कर सकती है और ऊर्जा की कीमतों में उतार-चढ़ाव पैदा कर सकती है।
  4. बुनियादी ढांचा चुनौतियाँ: दुनिया के कई हिस्सों में पुरानी ऊर्जा अवसंरचना अक्षम और विफलताओं के प्रति संवेदनशील है। इस बुनियादी ढांचे का आधुनिकीकरण करने के लिए महत्वपूर्ण निवेश की आवश्यकता है।
  5. पर्यावरणीय प्रभाव: जीवाश्म ईंधनों का जलना ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में सबसे बड़ा योगदानकर्ता है, जो जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा देता है। कार्बन उत्सर्जन को कम करने के उद्देश्य से पर्यावरणीय नियम ऊर्जा उत्पादन और आपूर्ति को प्रभावित कर सकते हैं।

Global Energy Crisis | वैश्विक ऊर्जा संकट : वैश्विक ऊर्जा संकट के परिणाम

  1. आर्थिक प्रभाव: ऊर्जा की कीमतों में उतार-चढ़ाव आर्थिक अस्थिरता का कारण बन सकता है। उच्च ऊर्जा लागतें उत्पादन लागत को बढ़ा देती हैं, जिससे उद्योगों और उपभोक्ताओं पर प्रभाव पड़ता है।
  2. सामाजिक असमानता: ऊर्जा पहुंच असमान बनी हुई है। कई विकासशील क्षेत्रों में, एक महत्वपूर्ण हिस्सा आबादी का हिस्सा विश्वसनीय और किफायती ऊर्जा की पहुंच से वंचित है, जिससे आर्थिक और सामाजिक विकास में बाधा उत्पन्न होती है।
  3. पर्यावरणीय क्षरण: जीवाश्म ईंधनों पर निर्भरता वायु और जल प्रदूषण, आवास विनाश और वैश्विक तापमान वृद्धि का कारण बनती है। ये पर्यावरणीय प्रभाव जैव विविधता और मानव स्वास्थ्य को खतरे में डालते हैं।
  4. ऊर्जा सुरक्षा: ऊर्जा आयात पर निर्भर देश आपूर्ति में रुकावटों से जुड़े जोखिमों का सामना करते हैं। ऊर्जा सुरक्षा राष्ट्रीय सुरक्षा और आर्थिक स्थिरता के लिए महत्वपूर्ण है।

Global Energy Crisis | वैश्विक ऊर्जा संकट : वैश्विक ऊर्जा संकट के संभावित समाधान

  1. नवीकरणीय ऊर्जा अपनाना: सौर, पवन, जल और भू-तापीय ऊर्जा जैसे नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों पर स्विच करना जीवाश्म ईंधनों पर निर्भरता को कम कर सकता है। ये स्रोत प्रचुर मात्रा में, स्थायी हैं और इनसे ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन बहुत कम या नहीं होता है।
  2. ऊर्जा दक्षता: उद्योगों, इमारतों और परिवहन में ऊर्जा दक्षता में सुधार ऊर्जा की मांग को काफी हद तक कम कर सकता है। ऊर्जा-कुशल तकनीकों और प्रथाओं को लागू करने से लागत की बचत होती है और पर्यावरणीय प्रभाव को कम किया जा सकता है।
  3. प्रौद्योगिकी नवाचार: उन्नत परमाणु रिएक्टरों, ऊर्जा भंडारण प्रणालियों और स्मार्ट ग्रिड जैसी नई ऊर्जा प्रौद्योगिकियों के अनुसंधान और विकास में निवेश ऊर्जा सुरक्षा और स्थिरता को बढ़ा सकता है।
  4. नीति और विनियमन: ऊर्जा संकट को हल करने में सरकारों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। नवीकरणीय ऊर्जा के लिए प्रोत्साहन, कार्बन मूल्य निर्धारण और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग स्थायी ऊर्जा भविष्य की दिशा में संक्रमण को प्रोत्साहित कर सकते हैं।
  5. व्यवहार में बदलाव: ऊर्जा संरक्षण और स्थायी प्रथाओं के बारे में जन जागरूकता और शिक्षा से ऊर्जा खपत को कम करने और पर्यावरण संरक्षण का समर्थन करने वाले व्यवहार परिवर्तन हो सकते हैं।

Global Energy Crisis | वैश्विक ऊर्जा संकट : निष्कर्ष

वैश्विक ऊर्जा संकट एक बहुआयामी चुनौती है जिसका समाधान करने के लिए एक व्यापक और समन्वित दृष्टिकोण की आवश्यकता है। नवीकरणीय ऊर्जा को अपनाकर, ऊर्जा दक्षता को बढ़ाकर, प्रौद्योगिकी नवाचार को बढ़ावा देकर, सहायक नीतियों को लागू करके और व्यवहार में परिवर्तन को प्रोत्साहित करके, हम एक स्थायी और सुरक्षित ऊर्जा भविष्य की दिशा में मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं। इस संकट को दूर करने और आने वाली पीढ़ियों के लिए एक लचीली और समान ऊर्जा प्रणाली सुनिश्चित करने के लिए सरकारों, उद्योगों और व्यक्तियों को एक साथ मिलकर काम करना जरूरी है।

Air mass

Air Mass | वायु राशि

Air Mass | वायु राशि: वायु द्रव्यमान जलवायु विज्ञान में एक महत्वपूर्ण अवधारणा है, जो एक बड़े वायु के हिस्से को दर्शाता है जिसमें तापमान और आर्द्रता समान होती है। ये द्रव्यमान विभिन्न क्षेत्रों में मौसम और जलवायु को प्रभावित करते हैं।

Air Mass | वायु राशि: वायु राशि का निर्माण

Air Mass | वायु राशि: वायु द्रव्यमान बड़े और समरूप क्षेत्रों में बनते हैं जिन्हें स्रोत क्षेत्र कहा जाता है। ये क्षेत्र आमतौर पर सपाट और समान होते हैं, जिससे वायु सतह की विशेषताएँ ग्रहण कर सकती है। प्रमुख स्रोत क्षेत्र निम्नलिखित हैं:

  • ध्रुवीय क्षेत्र: ठंडा और शुष्क वायु द्रव्यमान।
  • उष्णकटिबंधीय क्षेत्र: गर्म और आर्द्र वायु द्रव्यमान।
  • स्थलीय क्षेत्र: शुष्क वायु द्रव्यमान।
  • समुद्री क्षेत्र: आर्द्र वायु द्रव्यमान।

Air Mass | वायु राशि: वायु राशियों के प्रकार

Air Mass | वायु राशि: वायु राशी उनके तापमान और आर्द्रता के आधार पर वर्गीकृत किए जाते हैं, जो मुख्यतः पाँच प्रकार के होते हैं:

  1. समुद्री उष्णकटिबंधीय (mT): गर्म और आर्द्र, उष्णकटिबंधीय महासागरों पर बनते हैं।
  2. स्थलीय उष्णकटिबंधीय (cT): गर्म और शुष्क, रेगिस्तानों और उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों पर बनते हैं।
  3. समुद्री ध्रुवीय (mP): ठंडा और आर्द्र, ध्रुवीय क्षेत्रों के ठंडे महासागरों पर बनते हैं।
  4. स्थलीय ध्रुवीय (cP): ठंडा और शुष्क, उच्च अक्षांशों के बर्फ़ीले क्षेत्रों पर बनते हैं।
  5. स्थलीय आर्कटिक (cA): अत्यंत ठंडा और शुष्क, आर्कटिक क्षेत्रों के बर्फ़ीले क्षेत्रों पर बनते हैं।

Air Mass | वायु राशि: वायु राशि का संचलन और परिवर्तन

Air Mass | वायु राशि: वायु राशि स्थिर नहीं रहते; वे वायुमंडलीय परिसंचरण के कारण चलते हैं, और जिन क्षेत्रों से गुजरते हैं, उनके मौसम को प्रभावित करते हैं। चलते समय, वे निम्नलिखित परिवर्तनों से गुजरते हैं:

  • तापमान परिवर्तन: जब एक वायु राशि किसी अन्य तापमान वाले क्षेत्र में चलता है, तो यह धीरे-धीरे उस नए क्षेत्र के तापमान को ग्रहण कर लेता है।
  • आर्द्रता परिवर्तन: इसी प्रकार, वायु द्रव्यमान की आर्द्रता भी उस सतह के आधार पर बदलती है जिससे यह गुजरता है। उदाहरण के लिए, एक शुष्क स्थलीय वायु राशि जब महासागर के ऊपर से गुजरता है, तो यह आर्द्रता ग्रहण कर लेता है।

Air Mass | वायु राशि: मौसम और जलवायु पर प्रभाव

Air Mass | वायु राशि: विभिन्न वायु द्रव्यमानों के बीच की बातचीत अक्सर महत्वपूर्ण मौसम घटनाओं को जन्म देती है। जब दो विपरीत वायु द्रव्यमान मिलते हैं, तो वे मोर्चे बनाते हैं, जिससे वर्षा, तूफान और तापमान में परिवर्तन होता है। उदाहरण के लिए:

  • शीतल वाताग्र: जब एक ठंडा वायु द्रव्यमान एक गर्म वायु द्रव्यमान की ओर बढ़ता है, तो यह तूफान और अचानक तापमान गिरावट का कारण बनता है।
  • गर्म वाताग्र: जब एक गर्म वायु द्रव्यमान एक ठंडे वायु द्रव्यमान के ऊपर बढ़ता है, तो यह धीरे-धीरे गर्मी और निरंतर, स्थिर वर्षा का कारण बनता है।

Air Mass | वायु राशि: वायु राशि और जलवायु पैटर्न

वायु राशि की लंबी अवधि की गतियों से क्षेत्रीय जलवायु पर प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए, समुद्री उष्णकटिबंधीय वायु राशि की नियमित गति दक्षिणपूर्वी संयुक्त राज्य में आर्द्र परिस्थितियाँ लाती है, जबकि स्थलीय ध्रुवीय वायु द्रव्यमानों की दक्षिण की ओर गति सर्दियों में ठंड की लहरें लाती है।

Air Mass | वायु राशि: निष्कर्ष

Air Mass | वायु राशि: वायु राशि मौसम के पैटर्न और जलवायु को समझने के लिए महत्वपूर्ण हैं। उनके विशेषताओं, निर्माण, संचलन और बातचीत का अध्ययन करके, जलवायु वैज्ञानिक मौसम परिवर्तन का पूर्वानुमान कर सकते हैं और विभिन्न क्षेत्रों की जलवायु को समझ सकते हैं। यह ज्ञान कृषि, आपदा प्रबंधन और विभिन्न अन्य क्षेत्रों के लिए आवश्यक है जो सही मौसम पूर्वानुमान पर निर्भर करते हैं।

Spykmans Rimland Theory: रिमलैंड सिद्धांत

Spykmans Rimland Theory: रिमलैंड सिद्धांत, जो 20वीं सदी के मध्य में निकोलस स्पाइकमैन द्वारा प्रस्तावित किया गया था, भू-राजनीतिक अध्ययन में एक महत्वपूर्ण अवधारणा है। यह यूरेशिया के तटीय क्षेत्रों की रणनीतिक महत्ता पर जोर देता है, जिसे स्पाइकमैन ने “रिमलैंड” कहा, और तर्क दिया कि वैश्विक राजनीतिक शक्ति के लिए यह क्षेत्र महत्वपूर्ण है। आइए इस सिद्धांत पर गहराई से नज़र डालें:

Spykmans Rimland Theory रिमलैंड सिद्धांत के मुख्य विचार

  1. भू-राजनीतिक संदर्भ: स्पाइकमैन का मानना था कि रिमलैंड, जिसमें पश्चिमी यूरोप, मध्य पूर्व और एशिया के तटीय क्षेत्र शामिल हैं, वैश्विक शक्ति गतिशीलता के संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र है। मैकिंडर के हार्टलैंड सिद्धांत के विपरीत, जो यूरेशिया के केंद्रीय भाग पर केंद्रित था, स्पाइकमैन का सिद्धांत यह मानता है कि रिमलैंड पर नियंत्रण वैश्विक प्रभुत्व के लिए महत्वपूर्ण है।
  2. रणनीतिक महत्ता: रिमलैंड हार्टलैंड (मध्य यूरेशिया) की स्थल शक्ति और बाहरी अर्धचंद्राकार (समुद्री राष्ट्र जैसे अमेरिका और ब्रिटेन) की समुद्री शक्ति के बीच एक बफर जोन बनाता है। रिमलैंड पर नियंत्रण एक राष्ट्र को महाद्वीपीय और समुद्री दोनों मामलों में प्रभावी बनाता है।
  3. नियंत्रण नीति: स्पाइकमैन के विचार शीत युद्ध के दौरान महत्वपूर्ण थे और अमेरिकी नियंत्रण नीति को प्रभावित करते थे। सिद्धांत ने सुझाव दिया कि सोवियत संघ के रिमलैंड क्षेत्रों में विस्तार को रोकना शक्ति संतुलन बनाए रखने के लिए आवश्यक होगा।

Spykmans Rimland Theory तीन प्रमुख क्षेत्र

Spykmans Rimland Theory स्पाइकमैन ने रिमलैंड को तीन रणनीतिक क्षेत्रों में विभाजित किया:

  • पश्चिमी यूरोपीय तटीय क्षेत्र: जिसमें स्कैंडेनेविया से लेकर भूमध्यसागर तक के तटीय क्षेत्र शामिल हैं।
  • मध्य पूर्वी अर्धचंद्राकार: जिसमें अरब प्रायद्वीप से लेकर ईरान और भारत तक का क्षेत्र शामिल है।
  • एशियाई रिम: जिसमें दक्षिण और पूर्वी एशिया के तटीय क्षेत्र शामिल हैं।

Spykmans Rimland Theory इन क्षेत्रों में से प्रत्येक को वैश्विक स्थिरता और शक्ति संतुलन बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण माना गया।

Spykmans Rimland Theory हार्टलैंड सिद्धांत के साथ तुलना

  • हार्टलैंड सिद्धांत (हैलफोर्ड मैकिंडर): यूरेशिया के केंद्रीय भाग को एक धुरी क्षेत्र के रूप में मानता है, जहां नियंत्रण से विश्व द्वीप (यूरेशिया और अफ्रीका) पर प्रभुत्व प्राप्त किया जा सकता है।
  • रिमलैंड सिद्धांत: तटीय क्षेत्रों को अधिक महत्वपूर्ण मानता है क्योंकि उनके पास समुद्रों तक पहुंच है और महत्वपूर्ण जनसंख्या केंद्र हैं, जो आर्थिक और सैन्य शक्ति के लिए आवश्यक हैं।

Spykmans Rimland Theory रिमलैंड सिद्धांत के प्रभाव

  • शीत युद्ध रणनीति: सिद्धांत ने यूरेशिया के तटों के आसपास अमेरिकी गठबंधनों और सैन्य ठिकानों की रणनीति को प्रभावित किया ताकि सोवियत प्रभाव को रोका जा सके।
  • आधुनिक भू-राजनीति: रिमलैंड अवधारणा अभी भी प्रासंगिक है, विशेषकर यूएस-चीन संबंधों के संदर्भ में, जहां दक्षिण चीन सागर पर नियंत्रण और हिंद महासागर में प्रभाव को महत्वपूर्ण रणनीतिक उद्देश्यों के रूप में देखा जाता है।

Spykmans Rimland Theory निष्कर्ष

Spykmans Rimland Theory रिमलैंड सिद्धांत वैश्विक रणनीति में तटीय क्षेत्रों की महत्ता को रेखांकित करता है और यूरेशिया के किनारों की भू-राजनीतिक महत्वपूर्णता को दर्शाता है। इस सिद्धांत को समझने से अतीत और वर्तमान की भू-राजनीतिक रणनीतियों और संघर्षों पर मूल्यवान अंतर्दृष्टि मिलती है।

HeartLand Theory

HeartLand Theory: हार्टलैंड सिद्धांत(हृदय-स्थल सिद्धान्त)

Heartland Theory: हार्टलैंड सिद्धांत राजनीतिक भूगोल में एक महत्वपूर्ण अवधारणा है, जिसे 20वीं सदी की शुरुआत में सर हैलफोर्ड जॉन मैकिंडर ने प्रस्तुत किया था। इस सिद्धांत ने भू-राजनीतिक रणनीति और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों पर गहरा प्रभाव डाला है, जिससे राष्ट्रों के शक्ति गतिशीलता और क्षेत्रीय नियंत्रण को समझने का तरीका प्रभावित हुआ है। इस ब्लॉग पोस्ट में, हम हार्टलैंड सिद्धांत की उत्पत्ति, सिद्धांतों और प्रभावों के साथ-साथ समकालीन भू-राजनीति में इसकी प्रासंगिकता की जांच करेंगे।

Heartland Theory:हार्टलैंड सिद्धांत की उत्पत्ति

Heartland Theory: ब्रिटिश भूगोलवेत्ता और शिक्षाविद् सर हैलफोर्ड मैकिंडर ने 1904 में अपने पेपर “द जियोग्राफिकल पिवट ऑफ हिस्ट्री”(The Geographical Pivot of History) में हार्टलैंड सिद्धांत प्रस्तुत किया। मैकिंडर का कार्य गहन साम्राज्यवादी प्रतिद्वंद्विता और वैश्विक अन्वेषण के दौर के दौरान सामने आया। उन्होंने यह समझाने का प्रयास किया कि भूगोलिक कारक राजनीतिक शक्ति और नियंत्रण को कैसे प्रभावित करते हैं।

Heartland Theory: हार्टलैंड सिद्धांत के मुख्य सिद्धांत

Heartland Theory: मैकिंडर का हार्टलैंड सिद्धांत “हार्टलैंड” की अवधारणा के इर्द-गिर्द केंद्रित है, जो यूरेशिया के एक केंद्रीय क्षेत्र को दर्शाता है जिसे उन्होंने वैश्विक प्रभुत्व की कुंजी माना। सिद्धांत को निम्नलिखित मुख्य सिद्धांतों के माध्यम से संक्षेपित किया जा सकता है:

  1. भूगोलिक धुरी:
    • मैकिंडर ने यूरेशिया के एक विशाल क्षेत्र को, जो पूर्वी यूरोप से साइबेरिया तक फैला हुआ है, “भूगोलिक धुरी” या हार्टलैंड के रूप में पहचाना।
    • उन्होंने तर्क दिया कि यह क्षेत्र अपने आकार, संसाधनों और रणनीतिक स्थान के कारण विश्व को नियंत्रित करने के लिए महत्वपूर्ण है।
  2. हार्टलैंड का नियंत्रण:
    • मैकिंडर के अनुसार, जो भी हार्टलैंड को नियंत्रित करता है, वह संसाधनों और रणनीतिक लाभ को कमांड करता है ताकि वह “वर्ल्ड-आइलैंड” (यूरेशिया और अफ्रीका) पर प्रभुत्व स्थापित कर सके।
    • यह केंद्रीय क्षेत्र समुद्री मार्ग से कम सुलभ है, जिससे यह नौसैनिक शक्तियों के लिए घुसपैठ करना कठिन और एक प्रमुख भूमि शक्ति के लिए इसके संसाधनों को सुरक्षित और उपयोग करना आसान हो जाता है।
  3. विश्व का प्रभुत्व:
    • मैकिंडर ने प्रसिद्ध रूप से कहा, “जो पूर्वी यूरोप पर शासन करता है वह हार्टलैंड को कमांड करता है; जो हार्टलैंड पर शासन करता है वह वर्ल्ड-आइलैंड को कमांड करता है; जो वर्ल्ड-आइलैंड पर शासन करता है वह विश्व को कमांड करता है।”
    • उनका मानना था कि हार्टलैंड पर नियंत्रण एक शक्ति को वैश्विक स्तर पर अपना प्रभाव प्रकट करने में सक्षम बनाएगा।

Heartland Theory: हार्टलैंड सिद्धांत के प्रभाव

Heartland Theory: हार्टलैंड सिद्धांत के 20वीं सदी के दौरान भू-राजनीतिक रणनीति पर गहरे प्रभाव पड़े:

  1. भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विताएँ:
    • सिद्धांत ने प्रमुख शक्तियों की रणनीतिक सोच को प्रभावित किया, जिसमें नाजी जर्मनी और सोवियत संघ शामिल थे, दोनों ने हार्टलैंड पर नियंत्रण बढ़ाने की कोशिश की।
    • शीत युद्ध के दौरान, हार्टलैंड सोवियत संघ और पश्चिमी शक्तियों, विशेष रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका, के बीच प्रतिद्वंद्विता का केंद्र था।
  2. नीति निर्माण:
    • पश्चिमी नीति निर्माताओं ने सोवियत प्रभाव को सीमित करने के लिए निवारक रणनीतियों और गठबंधनों को सही ठहराने के लिए हार्टलैंड सिद्धांत का उपयोग किया।
    • नाटो की स्थापना और मार्शल योजना आंशिक रूप से पूर्वी यूरोप और हार्टलैंड में सोवियत विस्तार को रोकने की इच्छा से प्रेरित थीं।
  3. भू-राजनीतिक सिद्धांत:
    • मैकिंडर का कार्य बाद के भू-राजनीतिक सिद्धांतों और विश्लेषणों की नींव बन गया, जिसमें स्पाईकमैन का रिमलैंड सिद्धांत भी शामिल है, जिसने हार्टलैंड के चारों ओर तटीय क्षेत्रों के महत्व पर जोर दिया।

Heartland Theory:समकालीन प्रासंगिकता

Heartland Theory:यद्यपि मैकिंडर के समय से भू-राजनीतिक परिदृश्य में काफी बदलाव आया है, हार्टलैंड सिद्धांत समकालीन भू-राजनीति में प्रासंगिक बना हुआ है:

  1. ऊर्जा संसाधन:
    • हार्टलैंड क्षेत्र ऊर्जा संसाधनों, जैसे तेल, प्राकृतिक गैस, और खनिजों से समृद्ध है। इन संसाधनों पर नियंत्रण आज भी वैश्विक शक्तियों के लिए एक रणनीतिक प्राथमिकता है।
    • मध्य एशिया में रूस का प्रभाव और यूक्रेन में उसके कार्यों को हार्टलैंड के हिस्सों पर नियंत्रण बनाए रखने के नजरिए से देखा जा सकता है।
  2. भू-राजनीतिक बदलाव:
    • चीन का वैश्विक शक्ति के रूप में उदय यूरेशिया पर नए सिरे से ध्यान केंद्रित कर रहा है। चीन की बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) हार्टलैंड के पार कनेक्टिविटी और आर्थिक एकीकरण को बढ़ाने का लक्ष्य रखती है, जिससे उसका प्रभाव बढ़ता है।
    • संयुक्त राज्य अमेरिका और उसके सहयोगी रूस और चीन के प्रभाव को संतुलित करने के लिए आर्थिक, सैन्य और राजनयिक साधनों के माध्यम से इस क्षेत्र में लगे हुए हैं।
  3. रणनीतिक गठबंधन:
    • हार्टलैंड सिद्धांत रणनीतिक गठबंधनों और साझेदारियों के महत्व को रेखांकित करता है। आधुनिक भू-राजनीतिक रणनीतियों में अक्सर महत्वपूर्ण क्षेत्रों में प्रभाव को सुरक्षित करने के लिए गठबंधनों का निर्माण और रखरखाव शामिल होता है।
    • हाल के दिनों में नाटो का सुदृढ़ीकरण, साथ ही क्वाड (संयुक्त राज्य अमेरिका, जापान, भारत, और ऑस्ट्रेलिया) जैसे साझेदारी, हार्टलैंड गतिशीलता के प्रबंधन में रणनीतिक सहयोग के निरंतर महत्व को दर्शाते हैं।

Heartland Theory: निष्कर्ष

Heartland Theory: सर हैलफोर्ड मैकिंडर द्वारा प्रस्तावित हार्टलैंड सिद्धांत राजनीतिक भूगोल और भू-राजनीति में एक मौलिक अवधारणा बनी हुई है। यूरेशिया के केंद्रीय क्षेत्र के रणनीतिक महत्व पर इसका जोर ऐतिहासिक और समकालीन भू-राजनीतिक रणनीतियों को आकार दिया है। जबकि वैश्विक परिदृश्य निरंतर विकसित हो रहा है, हार्टलैंड सिद्धांत के सिद्धांत अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में भूगोल के स्थायी महत्व की मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं। इस सिद्धांत को समझना हमें वैश्विक शक्तियों के उद्देश्यों और कार्यों को समझने में मदद करता है क्योंकि वे 21वीं सदी की जटिल और आपस में जुड़ी दुनिया में नेविगेट करते हैं।

Demographic Transition Theory

Demographic Transition Theory: जनसांख्यिकीय संक्रमण सिद्धांत: थॉम्पसन और नोटेस्टीन

Demographic Transition Theory: जनसांख्यिकीय संक्रमण सिद्धांत जनसंख्या गतिशीलता और सामाजिक विकास को समझने में एक महत्वपूर्ण आधारशिला है। यह समय के साथ समाज की जनसंख्या संरचना के परिवर्तन को बताता है, जो जन्म और मृत्यु दर में परिवर्तनों से प्रभावित होता है। इस सिद्धांत को सबसे पहले वॉरेन थॉम्पसन ने 1929 में विकसित किया था और बाद में 20वीं सदी के मध्य में फ्रैंक डब्ल्यू. नोटेस्टीन द्वारा परिष्कृत किया गया। इस ब्लॉग पोस्ट में थॉम्पसन और नोटेस्टीन द्वारा प्रस्तावित जनसांख्यिकीय संक्रमण सिद्धांत के मुख्य पहलुओं को समझाया गया है, इसके महत्व और प्रभावों पर प्रकाश डाला गया है।

Demographic Transition Theory: जनसांख्यिकीय संक्रमण सिद्धांत की उत्पत्ति

Demographic Transition Theory: वॉरेन थॉम्पसन का योगदान

Demographic Transition Theory: वॉरेन थॉम्पसन, एक अमेरिकी जनसांख्यिकीविद्, ने पहली बार 1929 में अपनी पुस्तक “पॉप्युलेशन” में जनसांख्यिकीय संक्रमण की अवधारणा प्रस्तुत की। उन्होंने कई देशों के जनसांख्यिकीय पैटर्न का अवलोकन किया और उन्हें जनसंख्या वृद्धि के रुझानों के आधार पर तीन विशिष्ट समूहों में विभाजित किया:

  1. समूह ए: ऐसे देश जिनमें जन्म और मृत्यु दर में गिरावट हो रही है, जिसके परिणामस्वरूप जनसंख्या वृद्धि कम है (जैसे उत्तरी और पश्चिमी यूरोप)।
  2. समूह बी: ऐसे देश जिनमें उच्च जन्म दर है लेकिन मृत्यु दर में गिरावट हो रही है, जिससे जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है (जैसे दक्षिणी और पूर्वी यूरोप)।
  3. समूह सी: ऐसे देश जिनमें उच्च जन्म और मृत्यु दर है, जिसके परिणामस्वरूप जनसंख्या वृद्धि स्थिर या धीमी है (जैसे कम विकसित क्षेत्र)।

Demographic Transition Theory: थॉम्पसन के अवलोकनों ने यह समझने की नींव रखी कि जनसंख्या कैसे समय के साथ सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों के जवाब में विकसित होती है।

Demographic Transition Theory: फ्रैंक डब्ल्यू. नोटेस्टीन का परिष्करण

Demographic Transition Theory: 1940 और 1950 के दशकों में, फ्रैंक डब्ल्यू. नोटेस्टीन ने थॉम्पसन के काम का विस्तार और परिष्करण किया। उन्होंने जनसांख्यिकीय संक्रमण के लिए एक अधिक विस्तृत और व्यवस्थित ढांचा प्रस्तावित किया, जिसमें चार विशिष्ट चरण शामिल थे:

  1. पूर्व संक्रमण चरण: उच्च जन्म और मृत्यु दर की विशेषता, जिसके परिणामस्वरूप स्थिर और निम्न जनसंख्या वृद्धि होती है। इस चरण में समाजों में स्वास्थ्य देखभाल और शिक्षा की सीमित पहुंच होती है, और बीमारियों और खराब जीवन परिस्थितियों के कारण उच्च मृत्यु दर होती है।
  2. प्रारंभिक संक्रमण चरण: मृत्यु दर में गिरावट जबकि जन्म दर उच्च बनी रहती है। इससे जनसंख्या तेजी से बढ़ती है। स्वास्थ्य देखभाल, स्वच्छता और खाद्य आपूर्ति में सुधार मृत्यु दर में कमी में योगदान करते हैं।
  3. विलंबित संक्रमण चरण: जन्म दर में गिरावट शुरू होती है, जो कम हुई मृत्यु दर के करीब पहुंचती है। जनसंख्या वृद्धि दर धीमी होने लगती है। इस चरण को अक्सर महिलाओं के लिए शिक्षा की बढ़ती पहुंच और गर्भनिरोधक के अधिक उपयोग से जोड़ा जाता है।
  4. पोस्ट-ट्रांजिशन स्टेज: जन्म और मृत्यु दर दोनों ही कम होती हैं, जिसके परिणामस्वरूप स्थिर और निम्न जनसंख्या वृद्धि होती है। इस चरण में समाज आम तौर पर उच्च जीवन स्तर, उन्नत स्वास्थ्य देखभाल और व्यापक शैक्षिक अवसरों का आनंद लेते हैं।

Demographic Transition Theory: जनसांख्यिकीय संक्रमण को प्रभावित करने वाले कारक

Demographic Transition Theory: जनसांख्यिकीय संक्रमण विभिन्न सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक कारकों से प्रभावित होता है:

  • आर्थिक विकास: जैसे-जैसे देश औद्योगीकृत होते हैं और आर्थिक रूप से विकसित होते हैं, वे स्वास्थ्य देखभाल, पोषण और जीवन स्तर में सुधार का अनुभव करते हैं, जिससे मृत्यु दर कम होती है।
  • शिक्षा: विशेष रूप से महिलाओं के लिए शिक्षा की बढ़ती पहुंच जन्म दर को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। शिक्षित महिलाएं आम तौर पर कम बच्चे पैदा करती हैं और गर्भनिरोधक का अधिक उपयोग करती हैं।
  • शहरीकरण: ग्रामीण से शहरी जीवन में बदलाव अक्सर छोटे परिवारों का परिणाम होता है, शहरी क्षेत्रों में जीवन यापन की उच्च लागत और विभिन्न जीवनशैली विकल्पों के कारण।
  • स्वास्थ्य देखभाल में सुधार: चिकित्सा प्रौद्योगिकी और स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं में प्रगति मृत्यु दर, विशेष रूप से शिशु और मातृ स्वास्थ्य में कमी करती है।
  • सांस्कृतिक परिवर्तन: समय के साथ परिवार के आकार, लिंग भूमिकाओं और प्रजनन विकल्पों के प्रति समाज के दृष्टिकोण में बदलाव जन्म दर को प्रभावित करता है।

Demographic Transition Theory: जनसांख्यिकीय संक्रमण के निहितार्थ

Demographic Transition Theory: जनसांख्यिकीय संक्रमण को समझना नीति निर्माताओं और योजनाकारों के लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके आर्थिक विकास, सामाजिक सेवाओं और पर्यावरणीय स्थिरता के लिए महत्वपूर्ण प्रभाव हैं:

  • आर्थिक प्रभाव: प्रारंभिक और विलंबित संक्रमण चरणों में देश एक “जनसांख्यिकीय लाभांश” का अनुभव कर सकते हैं, जहां एक बड़ी कामकाजी उम्र की आबादी आर्थिक विकास का समर्थन करती है। हालाँकि, उन्हें नौकरी सृजन और संसाधन आवंटन से संबंधित चुनौतियों का भी सामना करना पड़ सकता है।
  • सामाजिक सेवाएँ: जैसे-जैसे जनसंख्या पोस्ट-ट्रांजिशन चरण में वृद्ध होती है, बुजुर्गों का समर्थन करने के लिए स्वास्थ्य देखभाल, पेंशन और अन्य सामाजिक सेवाओं की मांग बढ़ जाती है।
  • पर्यावरण संबंधी चिंताएँ: प्रारंभिक संक्रमण चरण में तेजी से जनसंख्या वृद्धि प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव डाल सकती है और पर्यावरणीय क्षरण में योगदान दे सकती है। इन प्रभावों को कम करने के लिए सतत विकास प्रथाएँ महत्वपूर्ण हैं।

Demographic Transition Theory: निष्कर्ष

Demographic Transition Theory: थॉम्पसन और नोटेस्टीन द्वारा व्यक्त जनसांख्यिकीय संक्रमण सिद्धांत यह समझने के लिए एक व्यापक ढांचा प्रदान करता है कि समय के साथ जनसंख्या कैसे बदलती है। यह सामाजिक-आर्थिक विकास और जनसांख्यिकीय पैटर्न के बीच परस्पर क्रिया को उजागर करता है, जो जनसंख्या परिवर्तन के साथ उत्पन्न होने वाली चुनौतियों और अवसरों को संबोधित करने के लिए मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। जैसे-जैसे देश जनसांख्यिकीय संक्रमण के विभिन्न चरणों से गुजरते हैं, सतत और समावेशी विकास सुनिश्चित करने के लिए सूचित नीतियां और रणनीतियाँ आवश्यक हैं।

ugc net 2024

UGC NET 2024 की परीक्षा रद्द: शिक्षा मंत्री ने बताई वजह

21 जून 2024, 8:47 AM IST

UGC NET 2024: यूजीसी नेट जून 2024 की परीक्षा रद्द कर दी गई है। शिक्षा मंत्रालय ने बुधवार को घोषणा की कि परीक्षा की शुचिता पर प्रश्न उठने के कारण यह निर्णय लिया गया है और परीक्षा को दोबारा आयोजित किया जाएगा। नई परीक्षा की तारीख की जानकारी जल्द ही ugcnet.nta.ac.in पर साझा की जाएगी।

UGC NET 2024: पेपर लीक के कारण रद्द हुई परीक्षा

UGC NET 2024: शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने बताया कि यूजीसी-नेट का पेपर डार्कनेट पर लीक हो गया था, जिसके कारण परीक्षा को रद्द करना पड़ा। उन्होंने कहा कि “जैसे ही यह स्पष्ट हुआ कि डार्कनेट पर उपलब्ध प्रश्नपत्र असली प्रश्नपत्र से मेल खाता है, हमने परीक्षा रद्द करने का निर्णय लिया।”

UGC NET 2024: नया एंटी-पेपर लीक कानून

UGC NET 2024: फरवरी 2024 में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सार्वजनिक परीक्षाओं (अनुचित साधनों की रोकथाम) विधेयक को मंजूरी दी, जो अब एक कानून बन गया है। इस कानून का उद्देश्य पेपर लीक और अन्य अनुचित साधनों को रोकना है। इसके तहत तीन से पांच साल की जेल और 10 लाख रुपये तक के जुर्माने का प्रावधान है। संगठित अपराध के मामलों में पांच से 10 साल की जेल और कम से कम 1 करोड़ रुपये के जुर्माने का प्रावधान है।

UGC NET 2024: सीबीआई करेगी जांच

UGC NET 2024: शिक्षा मंत्रालय ने इस मामले की जांच सीबीआई को सौंप दी है। मंत्रालय के अधिकारियों ने बताया कि परीक्षा के दौरान कोई शिकायत नहीं मिली थी, लेकिन छात्रों के हितों की सुरक्षा के लिए अपने स्तर पर कार्रवाई की गई।

UGC NET 2024: परीक्षा में शामिल हुए उम्मीदवारों की संख्या

UGC NET 2024: इस साल यूजीसी नेट जून 2024 की परीक्षा में कुल 9,08,580 उम्मीदवार शामिल हुए थे। यह परीक्षा जूनियर रिसर्च फेलोशिप, सहायक प्रोफेसर की नियुक्ति और पीएचडी प्रवेश के लिए आयोजित की गई थी।

UGC NET 2024: विपक्ष की प्रतिक्रिया

UGC NET 2024: सपा और कांग्रेस ने यूजीसी नेट परीक्षा रद्द करने और नीट पेपर लीक के मुद्दे पर केंद्र सरकार की आलोचना की है। राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री पर आरोप लगाया कि वह पेपर लीक रोकने में असमर्थ हैं।

UGC NET 2024: नई परीक्षा की तारीख की घोषणा जल्द

UGC NET 2024: एनटीए जल्द ही यूजीसी नेट 2024 की नई परीक्षा तारीख और समय की घोषणा करेगा।

UGC NET 2024: नए बदलाव

UGC NET 2024: इस साल यूजीसी ने नेट परीक्षा में कुछ बदलाव किए थे। पहली बार परीक्षा ऑफलाइन (पेन और पेपर) मोड में आयोजित की गई थी और सभी विषयों की परीक्षा एक ही दिन और एक ही शिफ्ट में हुई थी।

UGC NET 2024: शिक्षा मंत्री का बयान

UGC NET 2024: शिक्षा मंत्री ने कहा कि “सरकार ने एक समिति गठित करने का निर्णय लिया है जिसमें विशेषज्ञ शामिल होंगे। सभी महत्वपूर्ण बातों पर पुनर्विचार किया जाएगा और एनटीए को और मजबूत किया जाएगा। जो भी जिम्मेदार होगा, उसे जवाबदेह ठहराया जाएगा।”

इस प्रकार, यूजीसी नेट जून 2024 की परीक्षा रद्द होने के कारण और इसके आगे की कार्यवाही पर नजर रखें और नई तारीख की जानकारी के लिए आधिकारिक वेबसाइट पर अपडेट्स देखते रहें।

Darknet: डार्कनेट और यूजीसी नेट 2024 पेपर लीक: एक गंभीर समस्या

21 जून 2024

Darknet: यूजीसी नेट जून 2024 की परीक्षा रद्द हो गई है। इसका कारण डार्कनेट पर प्रश्नपत्र का लीक होना बताया गया है। इस घटना ने परीक्षा की शुचिता और उम्मीदवारों के भविष्य पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। इस ब्लॉग में हम डार्कनेट के बारे में जानेंगे और यूजीसी नेट 2024 पेपर लीक की घटना पर चर्चा करेंगे।

Darknet: डार्कनेट क्या है?

Darknet: डार्कनेट इंटरनेट का वह हिस्सा है जो सामान्य सर्च इंजन से छुपा हुआ रहता है और केवल विशेष सॉफ्टवेयर, कॉन्फ़िगरेशन या अनुमति के माध्यम से ही एक्सेस किया जा सकता है। इसे अक्सर गुप्त और अवैध गतिविधियों के लिए उपयोग किया जाता है। यहां पर ड्रग्स, हथियार, फर्जी दस्तावेज़ और यहां तक कि परीक्षा के प्रश्नपत्र भी खरीदे और बेचे जाते हैं।

Darknet: यूजीसी नेट 2024 पेपर लीक का मामला

Darknet: यूजीसी नेट जून 2024 की परीक्षा का प्रश्नपत्र डार्कनेट पर लीक हो गया था, जिसके कारण परीक्षा को रद्द करना पड़ा। शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने कहा कि “जैसे ही यह स्पष्ट हुआ कि डार्कनेट पर उपलब्ध प्रश्नपत्र असली प्रश्नपत्र से मेल खाता है, हमने परीक्षा रद्द करने का निर्णय लिया।”

Darknet: पेपर लीक के परिणाम

Darknet: इस पेपर लीक ने लाखों छात्रों को निराश किया है जिन्होंने इस परीक्षा के लिए कड़ी मेहनत की थी। 9,08,580 उम्मीदवारों ने इस परीक्षा में भाग लिया था, और अब उन्हें दोबारा परीक्षा देने के लिए इंतजार करना पड़ेगा। यह घटना शिक्षा प्रणाली में विश्वास को कमजोर करती है और छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य पर भी प्रभाव डालती है।

Darknet: सरकार की प्रतिक्रिया और कदम

Darknet: सरकार ने इस मामले की जांच सीबीआई को सौंप दी है और एक समिति गठित करने का निर्णय लिया है जिसमें विशेषज्ञ शामिल होंगे। शिक्षा मंत्री ने कहा कि एनटीए को और मजबूत किया जाएगा और जो भी इस लीक के लिए जिम्मेदार होंगे, उन्हें जवाबदेह ठहराया जाएगा।

Darknet: डार्कनेट पर काबू पाने के प्रयास

Darknet: डार्कनेट पर काबू पाना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। इसके लिए मजबूत साइबर सुरक्षा उपायों की आवश्यकता होती है। सरकार ने फरवरी 2024 में सार्वजनिक परीक्षाओं (अनुचित साधनों की रोकथाम) विधेयक को कानून बनाया, जो पेपर लीक और अन्य अनुचित साधनों को रोकने के लिए है। इस कानून के तहत तीन से पांच साल की जेल और 10 लाख रुपये तक के जुर्माने का प्रावधान है। संगठित अपराध के मामलों में पांच से 10 साल की जेल और कम से कम 1 करोड़ रुपये के जुर्माने का प्रावधान है।

Darknet: निष्कर्ष

Darknet: यूजीसी नेट 2024 पेपर लीक की घटना ने एक बार फिर से डार्कनेट के खतरों और परीक्षा प्रणाली की सुरक्षा की आवश्यकताओं को उजागर किया है। छात्रों के भविष्य को सुरक्षित और निष्पक्ष परीक्षा प्रणाली सुनिश्चित करने के लिए सरकार और शिक्षा संस्थानों को मिलकर काम करना होगा। एनटीए को और मजबूत किया जाना चाहिए और पेपर लीक के जिम्मेदार लोगों को सख्त सजा मिलनी चाहिए।

छात्रों को सलाह दी जाती है कि वे अपनी तैयारी जारी रखें और सरकारी घोषणाओं और नई परीक्षा तारीख के लिए आधिकारिक वेबसाइट ugcnet.nta.ac.in पर नजर बनाए रखें।

Central Place Theory

Central Place Theory: क्रिस्टालर का केंद्रीय स्थल सिद्धांत: एक संक्षिप्त परिचय

Central Place Theory: अधिवासों के संगठन और उनके बीच के संबंधों को समझने के लिए भूगोलशास्त्रियों ने विभिन्न सिद्धांत विकसित किए हैं। इन सिद्धांतों में से एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है ‘केंद्रीय स्थान सिद्धांत’, जिसे वाल्टर क्रिस्टालर ने 1933 में प्रस्तुत किया था। यह सिद्धांत विशेष रूप से व्यापारिक सेवाओं और बस्तियों के वितरण को समझने में सहायक है।

Central Place Theory: केंद्रीय स्थान सिद्धांत क्या है?

Central Place Theory: क्रिस्टालर का केंद्रीय स्थान सिद्धांत बताता है कि किसी क्षेत्र में बस्तियों और सेवाओं का वितरण एक विशेष तरीके से होता है। यह सिद्धांत मुख्यतः निम्नलिखित बिंदुओं पर आधारित है:

  1. केंद्रीय स्थान: यह वे बस्तियाँ हैं जो अपने आस-पास के क्षेत्रों को सेवाएँ प्रदान करती हैं। यह सेवाएँ व्यवसायिक, शैक्षणिक, चिकित्सा, और अन्य प्रकार की हो सकती हैं।
  2. सेवा क्षेत्र : ये वे छोटे बस्तियाँ हैं जो मुख्य केंद्रीय स्थान के अंतर्गत आती हैं और उनसे सेवाएँ प्राप्त करती हैं।

Central Place Theory: सिद्धांत के मुख्य घटक

  1. दूरी और पहुंच: यह सिद्धांत मानता है कि लोग आवश्यक सेवाओं को प्राप्त करने के लिए निकटतम केंद्रीय स्थान पर जाते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि सेवाएँ और बस्तियाँ एक विशिष्ट दूरी पर स्थित होती हैं, जिससे सेवाओं तक पहुंच आसान हो सके।
  2. हैक्सागोनल वितरण: क्रिस्टालर ने सुझाव दिया कि सबसे कुशल वितरण पैटर्न एक हेक्सागोनल (षटकोणीय) पैटर्न है। यह पैटर्न सुनिश्चित करता है कि प्रत्येक केंद्रीय स्थान के आस-पास की बस्तियाँ समान दूरी पर स्थित हों और सभी को सेवाएँ मिल सकें।
  3. पदानुक्रम संगठन: केंद्रीय स्थान सिद्धांत यह भी बताता है कि बस्तियों और सेवाओं का एक पदानुक्रम होता है। इसका मतलब है कि बड़े शहर या कस्बे छोटे कस्बों से अधिक सेवाएँ प्रदान करते हैं और ये सेवाएँ उच्च स्तर की होती हैं।

Central Place Theory: केंद्रीय स्थान सिद्धांत का महत्व

  1. शहरी नियोजन: इस सिद्धांत का उपयोग शहरी नियोजन और विकास में किया जाता है। यह नीति-निर्माताओं को यह समझने में मदद करता है कि सेवाओं और सुविधाओं का वितरण कैसे किया जाए ताकि सभी बस्तियों को समान रूप से लाभ मिल सके।
  2. आर्थिक भूगोल: केंद्रीय स्थान सिद्धांत आर्थिक गतिविधियों के वितरण और उनके प्रभाव को समझने में सहायक है। यह व्यापारिक गतिविधियों के वितरण और उनके प्रभाव क्षेत्र को परिभाषित करता है।
  3. परिवहन नेटवर्क: यह सिद्धांत परिवहन नेटवर्क के विकास में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, क्योंकि सेवाओं और बस्तियों के बीच की दूरी और पहुंच को ध्यान में रखते हुए परिवहन मार्गों की योजना बनाई जाती है।

Central Place Theory: स्थिर K मान

क्रिस्टालर ने उच्च स्तर के सेवा केंद्र और निम्न स्तर के सेवा केंद्र के मध्य अनुपात को K मूल्य के द्वारा व्यक्त किया है |

बाजार सिद्धांत :- K =3

यातायात सिद्धांत :- K=4

प्रशासनिक सिद्धांत :- K=7

Central Place Theory: निष्कर्ष

Central Place Theory: क्रिस्टालर का केंद्रीय स्थान सिद्धांत बस्तियों और सेवाओं के वितरण को समझने का एक महत्वपूर्ण साधन है। यह सिद्धांत न केवल शहरी नियोजन और विकास में सहायक है, बल्कि आर्थिक गतिविधियों और परिवहन नेटवर्क के संगठन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इससे यह सुनिश्चित होता है कि सभी बस्तियों को आवश्यक सेवाएँ मिल सकें और उनका समान रूप से विकास हो सके।

Jet Stream

Jet Stream | जेट स्ट्रीम एवं इनके प्रकार

Jet Stream

Jet Stream जेट स्ट्रीम – ये क्षोभ सीमा के निकट पश्चिम से पूर्व चलने वाली अत्यधिक तीव्र गति की क्षेतिज पवने हैं | ये 150 किमी चौड़ी एवं 2 से 3 किमी मोटी एक संक्रमण पेटी के रूप में सक्रीय रहती हैं | इनकी गति 150 से 200 किमी प्रति घंटा होती है | क्रोड़ पर इनकी गति 325 किमी प्रति घंटा तक हो सकती है |

जेट स्ट्रीम सामान्यतः उत्तरी गोलार्ध में ही मिलती हैं तथा दक्षिणी गोलार्ध में ये केवल दक्षिणी ध्रुव पर मिलती है | ये पश्चिम से पूर्व चलती हैं | इनकी उत्पत्ति का मुख्य कारण पृथ्वी की सतह पर तापमान में अंतर एवं उससे उत्पन्न दाब  प्रवणता है | प्रमुख कारण विषुवत रेखीय क्षेत्र एवं ध्रुवीय क्षेत्रो के मध्य उत्पन्न तापीय प्रवणता है | ग्रीष्म ऋतु की अपेक्षा शीत ऋतु के समय तापीय प्रवणता अधिक होने के कारण शीत ऋतु में जेट स्ट्रीम की तीव्रता भी अधिक हो जाती है |

दक्षिणी गोलार्ध में स्थलीय सतह का आभाव होने के कारण ताप प्रवणता कम होती है इसलिए जेट स्ट्रीम दक्षिणी गोलार्ध में कम स्थायी एवं उत्तरी गोलार्ध में अधिक स्थायी होती हैं |

भूमध्य रेखा से ध्रुवो की ओर क्षोभ सीमा की ऊंचाई में कमी होने के कारण जेट स्ट्रीम की ऊंचाई में भी कमी होती है |

Jet Stream | जेट स्ट्रीम के प्रकार  

  1. ध्रुवीय रात्रि जेट स्ट्रीम
  2. ध्रुवीय वताग्री जेट स्ट्रीम
  3. उपोष्ण पछुआ जेट स्ट्रीम
  4. उष्ण कटिबंधीय पूर्वी जेट स्ट्रीम

Jet Stream | ध्रुवीय रात्रि जेट स्ट्रीम

ये दोनों गोलार्धो में 60 डिग्री से उपरी अक्षांशो में मिलती हैं |

ध्रुवीय वाताग्री जेट स्ट्रीम

40-60 डिग्री उत्तरी अक्षांशो के मध्य 9 से 12 किमी की ऊंचाई पर मिलती है | इसका सम्बन्ध ध्रुवीय वाताग्रो से है ये तरंग उक्त असंगत पथ का अनुसरण करती हैं | इनकी गति 150-300 किमी प्रति घंटा एवं वायुदाब 200से 300 मिलिबार होता है | इन्हें रोस्बी तरंग भी कहा जाता है |

उपोष्ण कटिबंधीय पछुआ जेट स्ट्रीम

ये 30 से 35 डिग्री उत्तरी अक्षांशों के मध्य 10 से 14 किमी कि ऊंचाई पर मिलती हैं | इनकी गति 350 से 385 एवं वायुदाब 200 से 300 मिलिबार होता है | इनकी उत्पत्ति का मुख्य कारण विषुवतीय क्षेत्र में उच्च तापमान के कारण होने वाली संवहन क्रिया है | भारत में दिसंबर से फ़रवरी के मध्य पश्चिमी विक्षोभ के लिए यही जेट पवने उत्तरदायी हैं |

उष्ण कटिबंधीय पूर्वी जेट स्ट्रीम

अन्य जेट स्ट्रीम के विपरीत इसकी दिशा उत्तर पूर्वी होती है | ये केवल उत्तरी गोलार्ध में 25 डिग्री उत्तरी अक्षांश के पास ग्रीष्म कल में उत्पन्न होती हैं | 14 से 16 किमी की ऊंचाई पर इनकी उत्पत्ति 100 से 150 मिलिबार वायुदाब वाले क्षेत्रो में होती है |इनकी गति 180 किमी प्रति घंटा होती है | भारतीय मानसून कि उत्पत्ति के लिए यही जेट उत्तरदायी है |  


अन्य उपयोगी आर्टिकल

Tri Cellular Circulation of the Atmosphere

Tri Cellular Circulation of the Atmosphere | वायुमंडल का त्रिकोशिकीय परिसंचरण

Tri Cellular Circulation of the Atmosphere

Tri Cellular Circulation of the Atmosphere.तापीय व गतिक कारणों से वायुमंडलीय पवनो के प्रवाह प्रतिरूप को वायुमंडलीय त्रिकोशिकीय परिसंचरण अथवा वायुमंडल का सामान्य परिसंचरण कहा जाता है | यह परिसंचरण महासागरीय जल को भी प्रभावित करता है जो जलवायु को प्रभावित करता है | वायु परिसंचरण का प्रतिरूप स्थल पर वायुमंडल कि तुलना में उल्टा होता है | इस प्रकार धरातल पर भूमध्य रेखा से ध्रुवों की ओर प्रत्येक गोलार्ध में  तीन वायुमंडलीय कोशिकाएं निर्मित होती हैं उष्ण कटिबंधीय , मध्य अक्षांशिय एवं ध्रुवीय कोशिका |

Tri Cellular Circulation of the Atmosphere | हेडली सेल

Tri Cellular Circulation of the Atmosphere: भूमध्यरेखीय उष्ण कटिबंधीय भाग में सूर्य की सीधी किरणों के आपतन के कारण स्थल अत्यधिक गर्म हो जाता है एवं पवने ऊपर उठती है | ये पवने क्षोभ सीमा पर पहुँच कर उत्तर एवं दक्षिण की ओर मुड़ जाती हैं तथा 30-35 डिग्री अक्षांश  पर दोनों गोलार्ध में नीचे  उतरती हैं | नीचे उतरकर ये पवने उच्च वायुदाब का निर्माण करती हैं तथा पुनः उष्ण कटिबंधीय निम्न वायुदाब की ओर प्रवाहित होकर एक चक्र पूर्ण करती हैं जिसे हेडली सेल कहा जाता है | धरातल पर हेडली सेल में प्रवाहित होने वाली पवने व्यापारिक पवने कहलाती हैं |

Tri Cellular Circulation of the Atmosphere: फेरल सेल

Tri Cellular Circulation of the Atmosphere: मध्य अक्षांशिय कोशिका के अंतर्गत अश्व आक्शांशों से शितोष्ण निम्न दाब की ओर धरातलीय हवाएं (पछुवा पवने ) चलती हैं ये पवने 60-65 अक्षांशों पर पृथ्वी के अपकेन्द्रिय बल के कारण ऊपर उठकर उत्तर एवं दक्षिण की ओर मुड जाती है| भूमध्य रेखा कि ओर चलकर ये पवने उपोष्ण उच्च दाब की पेटी में अश्व अक्षांश पर निचे उतरकर पछुआ पवनो के रूप में एक चक्र पूर्ण करती हैं जिसे फेरल सेल कहा जाता है |

Tri Cellular Circulation of the Atmosphere: ध्रुवीय कोशिका | पोलर सेल

Tri Cellular Circulation of the Atmosphere: ध्रुवीय कोशिका के अंतर्गत ध्रुवीय उच्च दाब से शीतोष्ण कटिबंधीय निम्न वायुदाब की ओर धरातलीय पवने चलती हैं जबकी पृथ्वी के घूर्णन के कारण शीतोष्ण निम्न दाब से ऊपर उठी पवने ध्रुवों के पास उतरती हैं तथा ध्रुवीय कोशिका का निर्माण होता है |   


ये भी पढ़ें

Atmospheric Pressure NET UPSC

Atmospheric Pressure NET | वायुदाब Atmospheric Pressure NET UPSC

Atmospheric Pressure NET UPSC

Atmospheric Pressure NET UPSC | वायुदाब :Atmospheric Pressure. किसी स्थान  पर इकाई क्षेत्रफल पर वायुमंडल की समस्त परतों द्वारा पड़ने वाला भार वायुदाब कहलाता है | पृथ्वी कि सतह पर वायुमंडल गुरुत्वाकर्षण बल के कारण वायुदाब डालता है |

वायुदाब का मापन – वायुदाब को बैरोमीटर (फॉरट्रीन या अनेरोइड )द्वारा मापा जाता है | वायुदाब नापने की इकाई मिलिबार या हेक्टोपास्कल है | भारत में प्रचलित इकाई मिलिबार है | 1 मिलिबार 1 वर्ग सेमी पर एक ग्राम भार के बराबर होता है |

बैरोमीटर के पठन में तेजी से गिरावट तूफान आने का संकेत देती है | पठन का तेजी से लगातार बढ़ना साफ़ मौसम या प्रतिचक्र्वातीय दशा का संकेत है | वायुदाब के वितरण को समदाब रेखाओ के द्वारा दर्शाया जाता है |

समदाब रेखाएं समुद्र तल पर समान वायुदाब वाले स्थानों को मिलाने से बनती है | इसमें वायुदाब पर ऊंचाई का प्रभाव हटा दिया जाता है |  दो सम वायुदाब रेखाओ के बीच की दूरी वायुदाब प्रवणता / बेरोमेट्रिक ढाल  कहलाती है |

Atmospheric Pressure NET UPSC | वायुदाब का वितरण

वायुदाब का वितरण दो प्रकार से होता है –

उर्ध्वाधर वितरण – सामान्यतया ऊंचाई बढ़ने पर वायुदाब कम होता जाता है | प्रत्येक 10 मीटर की ऊंचाई पर एक मिलिबार की कमी आती है | 6 किमी की ऊंचाई पर वायुदाब लगभग आधा रह जाता है | वायुमंडल की निचली परतो में भरी गैसे पाई जाती है तथा गुरुत्वाकर्षण बल अधिक लगता है |

क्षैतिज वितरण – पृथ्वी पर कुल 7 वायुदाब कटिबंध पाए जाते हैं | भूमध्य रेखीय निम्न दाब कटिबंध एवं ध्रुवीय उच्च वायुदाब कटिबंध तापजनित हैं जबकि दोनों गोलार्धो में 30-35 डिग्री कटिबंध उपोष्ण उच्च वायुदाब कटिबंध एवं 60-65 डिग्री पर उपध्रुवीय निम्न वायुदाब कटिबंध गतिजन्य हैं |

30-35 अक्षांश को अश्व अक्षांश कहा जाता है क्योंकि प्राचीन कल में घोड़ो को ले जाने वाली नौकाओं के आसन नौवहन के लिए घोड़ो को कभी कभी समुद्र में फेंक दिया जाता था |


ये भी पढ़ें

Earthquake

Earthquake | भूकंप

Earthquake भूकंप का अर्थ भू पर्पटी में प्रघाती तरंगो द्वारा उत्पन्न होने वाले कम्पन्न से है | इसका कारण आकस्मिक रूप से स्ठेतिक ऊर्जा का गतिज उर्जा में परिवर्तन होना है | इस लेख में हम भूकंप के कारण , भूकंपीय तरंगो के प्रकार एवं भूकंप के विश्व वितरण पर चर्चा करेंगे |

Earthquake

Earthquake | भूकंप के कारण

Earthquake: ज्वालामुखी क्रिया – भूकंप के आने का एक प्रमुख कारण ज्वालामुखी उद्भेदन है | जिससे पृथ्वी के भीतर से गर्म लावा एवं गैसों के निकलने से भूपर्पटी पर दबाव पड़ता है और कम्पन्न उत्पन होता है |

भ्रंश एवं संपीडन की क्रिया – ये चट्टानों के विस्थापन के कारण होने वाली क्रियाएँ हैं | इसमें चट्टानों का विपरीत दिशा में विस्थापन होता है | विश्व के नविन पर्वत क्षेत्रों में इस प्रकार के भूकंप आते रहते हैं | उदाहरण सेन फ्रांसिस्को का भूकंप |

समस्थितिक समायोजन या भुसंतुलन – यह गुरुत्वाकर्षण एवं उत्प्लावन बल का प्रतिफल है जिसके कारण क्रस्ट में स्थैतिक संतुलन कायम रहता है |

प्रत्यास्थ पुनश्चलन सिद्धांत – अमेरिकी भूगोलवेत्ता प्रोफेसर एच एफ रीड के अनुसार आन्तरिक चट्टानें लचीली होती है तथा एक सीमा तक दबाव सहन करने के पश्चात टूट जाती हैं एवं पूर्व स्थिति को प्राप्त होती हैं जिसके कारण भूकंप आते हैं |

प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत – रचनात्मक प्लेट किनारे आने वाले भूकंप कम गहरे के एवं विनाशात्मक प्लेट किनारे आने वाले भूकंप अधिक गहरे के एवं विनाशकारी होते हैं |

जिस स्थान से भूकंप तरंगे उत्पन्न होती हैं उसे भूकंप मूल कहा जाता है एवं सबसे पहले जहाँ भूकंप अनुभव किया जाता है उसे भूकंप केंद्र कहा जाता है

Earthquake: प्लेट विवर्तनिकी के अनुसार भूकंप के प्रकार

  • छिछले केंद्र वाले भूकंप – 0-35 किमी गहराई
  • मध्यम केंद्र वाले भूकंप – 35-100 किमी गहरे के भूकंप
  • गहन केंद्र वाले भूकंप – 100 से 350 किमी गहरे भूकंप
  • पतालीय केंद्र वाले भूकंप – 350 – 700 किमी गहरे भूकंप

Earthquake: भूकंपीय तरंगो के प्रकार

भूकंप के समय जो उर्जा भूकंप मूल से निकलती है उसे प्रत्यास्थ उर्जा कहते हैं | भूकंप के दौरान मुख्य रूप से तीन प्रकार की भूकंपीय तरंगें उत्पन्न होती हैं –

प्राथमिक अथवा लम्बवत तरंगे – इन्हें P तरंगे कहा जाता है | ये अनुदैर्ध्य तरंगे हैं एवं ध्वनि तरंगो की तरह गति करती हैं | ये ठोस एवं तरल दोनों माध्यम में चल सकती हैं | S तरंगो की तुलना में इनकी गति 66 प्रतिशत अधिक होती है |

द्वितीयक तरंगे – इन्हें S तरंगे कहा जाता हैं ये प्रकाश तरंगो की भांति व्यव्हार करती हैं | ये केवल ठोस माध्यम में ही गति करती हैं |ये पृथ्वी के कोर से गुजर नहीं पाती अतः इस से अंदाजा लगाया गया है की पृथ्वी का कोर तरल अवस्था में है | तृतीयक तरंगे – इन्हें धरातलीय तरंगे भी कहा जाता है | ये अत्यधिक प्रभावशाली तरंगे हैं तथा उपरी भाग को प्रभावित करती हैं | इनकी गति अत्यंत धीमी होती हैं तथा इनका प्रभाव सर्वाधिक विनाशकारी होता है |

Earthquake: भूकंप का भौगोलिक वितरण

विश्व में भूकंप का वितरण उन्हीं क्षेत्रो से सम्बंधित है जो भूगर्भिक रूप से कमजोर एवं अव्यवस्थित हैं | विश्व में भूकंप की प्रमुख तीन पेटियां निम्नलिखित हैं –

प्रशांत महासागरीय तटीय पेटी – इसे परिप्रशांत मेखला भी कहा जाता है | यह विश्व का सर्वाधिक विस्तृत भूकंप क्षेत्र है यहाँ विश्व के 63 प्रतिशत भूकंप आते हैं | चिली , केलिफोर्निया , अलास्का जापान , फिलिपिन्स न्यू जीलैंड के भूकंप |

मध्य महाद्वीपीय पेटी – इस पेटी में विश्व के 21 प्रतिशत भूकंप आते हैं | यह प्लेट अभिसरण का क्षेत्र है एवं यहाँ आने वाले अधिकांश भूकंप संतुलन मूलक  है | यह केप वर्ड से शुरू होकर अटलांटिक एवं भूमध्य सागर को पार करके आल्प्स , काकेशश , हिमालय से होते हुए दक्षिण की ओर मुड जाती है | भारत के भूकंप क्षेत्र इसी पेटी के अंतर्गत आते हैं | मध्य अटलांटिक पेटी – यह मध्य अटलांटिक कटक में आइस लैंड से लेकर दक्षिण में बोवेट द्वीप  तक विस्तृत है | यहाँ कम तीव्रता के भूकंप आते हैं ये संतुलनकारी एवं रूपांतर प्रकृति के होते हैं |


ये भी पढ़ें

Continental Drift Theory Notes | वेगनर का महाद्वीपीय प्रवाह सिद्धांत

Europe | यूरोप महाद्वीप का सामान्य परिचय